सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: पत्नी की हत्या के आरोपी पति की बरीी पर फिर से सुनवाई का आदेश, हाईकोर्ट को दी नई गाइडलाइन
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के माध्यम से न्यायिक संवेदनशीलता और पारदर्शिता पर जोर दिया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “अपील की अनुमति देने से इनकार करना केवल तभी उचित है जब ट्रायल कोर्ट का फैसला पूरी तरह तर्कसंगत हो।” मामले को हाईकोर्ट में पुनः सुनवाई के लिए भेजकर, सुप्रीम कोर्ट ने पीड़ित परिवार को न्याय की नई उम्मीद दी है।
मामले की पृष्ठभूमि
घटना का सार:
2 अप्रैल 2011 को भारत ने मुंबई में आयोजित क्रिकेट विश्व कप फाइनल जीता। आरोपी महेश प्रकाश अहूजा ने खुशी में अपनी लाइसेंस्ड पिस्तौल से हवा में गोलियां चलाईं। बाद में, उसने अपनी पत्नी भावना (रीना) को गोली मारकर हत्या कर दी।
पीड़िता के 15 वर्षीय बेटे उमेश (PW-3) ने आरोपी को घटनास्थल पर देखने का दावा किया, लेकिन बाद में अदालत में शत्रुतापूर्ण गवाह बन गया।
ट्रायल कोर्ट का फैसला:
2011 में सत्र न्यायालय, कल्याण ने आरोपी को धारा 302 IPC (हत्या) से बरी कर दिया, क्योंकि पुलिस सबूतों को साबित करने में विफल रही।
हाईकोर्ट की प्रतिक्रिया:
राज्य सरकार ने धारा 378 CrPC के तहत अपील की, लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2013 में “लीव” (अनुमति) देने से इनकार कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट में चुनौती:
पीड़िता के भाई मनोज चैबड़िया ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 27 फरवरी 2025 को कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए मामले को पुनर्विचार के लिए भेजा।
सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख तर्क
लीव देने से इनकार गलत:
जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन ने कहा कि हाईकोर्ट ने सुजय मंगेश पोयरेकर बनाम महाराष्ट्र सरकार (2008) के फैसले की अनदेखी की।
कोर्ट ने कहा, “लीव देते समय हाईकोर्ट को केवल यह देखना चाहिए कि प्राइमा फेसी केस बनता है या नहीं, न कि साक्ष्य का गहन विश्लेषण करना।”
संज्ञानात्मक सबूतों की उपेक्षा:
मेडिकल और बैलिस्टिक रिपोर्ट स्पष्ट थी कि पीड़िता की मौत गोली लगने से हुई।
आरोपी का पिस्तौल लाइसेंस, खून से सनी कपड़ों की बरामदगी, और धारा 106 साक्ष्य अधिनियम (अंतिम बार देखे जाने का सिद्धांत) को ट्रायल कोर्ट ने नज़रअंदाज किया।
शत्रुतापूर्ण गवाह पर निर्भरता:
पुत्र उमेश (PW-3) ने अदालत में अपने बयान से पलटा, लेकिन उसके प्रारंभिक बयान (जिसमें पिता को दोषी बताया) को गंभीरता से नहीं लिया गया।
प्रक्रियात्मक लापरवाही:
पुलिस ने फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट और कुत्ता दल की रिपोर्ट को अदालत में पेश नहीं किया, जिससे सबूतों की श्रृंखला टूट गई।
महत्वपूर्ण कानूनी बिंदु
धारा 378 CrPC:
राज्य सरकार को अपील की अनुमति देने के लिए हाईकोर्ट को यह सुनिश्चित करना होता है कि ट्रायल कोर्ट का फैसला “विकृत” (Perverse) है या नहीं।
सीताराम बनाम उत्तर प्रदेश (1979):
“अपील का अधिकार न्यायिक प्रक्रिया का मूलभूत हिस्सा है। न्यायाधीश भी मनुष्य हैं, गलतियां हो सकती हैं।”
संज्ञानात्मक सबूतों का महत्व:
हत्या के मामलों में अदालत को साक्ष्यों की श्रृंखला (Chain of Circumstances) को साबित करना होता है।
फैसले का व्यापक प्रभाव
न्यायिक पारदर्शिता:
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट्स को निर्देश दिया कि लीव देने से इनकार करते समय विस्तृत कारण दर्ज करें।
पीड़ित परिवारों को राहत:
अब पीड़ित पक्ष धारा 372 CrPC के तहत सीधे अपील कर सकते हैं, भले ही राज्य सरकार चुप रहे।
पुलिस जांच में सुधार की जरूरत:
केस में फॉरेंसिक सबूतों का समय पर संग्रह न होना और गवाहों का बयान दर्ज न करना पुलिस की लापरवाही को उजागर करता है।
निष्कर्ष: न्यायिक प्रक्रिया में संतुलन
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के माध्यम से न्यायिक संवेदनशीलता और पारदर्शिता पर जोर दिया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “अपील की अनुमति देने से इनकार करना केवल तभी उचित है जब ट्रायल कोर्ट का फैसला पूरी तरह तर्कसंगत हो।” मामले को हाईकोर्ट में पुनः सुनवाई के लिए भेजकर, सुप्रीम कोर्ट ने पीड़ित परिवार को न्याय की नई उम्मीद दी है।
समाचार कोड: SC_CriminalAppeal_2025
संवाददाता: विधिक समाचार नेटवर्क
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