सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश ज़मीन विवाद में ‘देरी माफी’ को दी हरी झंडी: सरकारी ज़मीन के मामलों में मेरिट पर सुनवाई ज़रूरी
सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश ज़मीन विवाद के 50 साल पुराने वाद में 1537 दिन की देरी माफ की। जानें, कैसे “सरकारी ज़मीन” और “कोविड-19” ने इस फैसले को प्रभावित किया।
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पृष्ठभूमि: 50 साल पुराने ज़मीन विवाद की कहानी
एक नज़र में केस
1977 का आवंटन: इंदर सिंह को मध्य प्रदेश के आशोकनगर जिले में सर्वे नंबर 8/1 की 1.06 हेक्टेयर ज़मीन आवंटित हुई।
राजस्व रिकॉर्ड गड़बड़ी: 1978 में “इश्वर सिंह” का नाम गलत दर्ज होने पर अतिरिक्त कलेक्टर ने सुधार किया।
2012 का मुकदमा: इंदर सिंह ने सरकारी ज़मीन पर दावे के खिलाफ टाइटल सूट दायर किया।
निचली अदालतों का फैसला:
ट्रायल कोर्ट (2013) → दावा खारिज
फर्स्ट अपीलेट कोर्ट (2015) → इंदर सिंह को ज़मीन का मालिकाना हक
हाई कोर्ट (2024) → 1537 दिन की देरी माफ कर सेकंड अपील स्वीकारी
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 5 मुख्य बिंदु
1. “सरकारी देरी” को कोविड का आधार
कोर्ट ने माना कि 2019 में रिव्यू पिटीशन खारिज होने के बाद कोविड-19 महामारी ने सेकंड अपील फाइल करने में बाधा डाली। हालांकि, यह भी स्पष्ट किया कि सरकार को भविष्य में ऐसी लापरवाही नहीं दिखानी चाहिए।
2. लिमिटेशन एक्ट धारा 5 की व्याख्या
जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह ने रामचंद्र शंकर देवधर vs महाराष्ट्र राज्य (1974) के नजीर को दोहराया:
“न्यायालय को देरी माफ करने में उदार रुख अपनाना चाहिए, खासकर जब सार्वजनिक हित जुड़ा हो।”
3. ‘सरकारी ज़मीन’ बनाम ‘निजी दावा’ का संतुलन
सुप्रीम कोर्ट ने ज़ोर दिया कि युवा कल्याण विभाग को आवंटित ज़मीन पर सरकार का कब्ज़ा है।
इंदर सिंह का कब्ज़ा न होना केस का अहम पहलू रहा।
4. 50,000 रुपये का जुर्माना
कोर्ट ने राज्य सरकार को 50,000 रुपये का जुर्माना लगाया, जो इंदर सिंह को भुगतान करना होगा। साथ ही, हाई कोर्ट को तीव्र सुनवाई का निर्देश दिया।
5. भविष्य के लिए चेतावनी
न्यायमूर्तियों ने स्पष्ट किया:
“सरकारी विभागों को लापरवाही और फाइलों की धीमी गति के आधार पर बार-बार देरी माफ नहीं की जाएगी।”
कानूनी सिद्धांत: कब माफ की जा सकती है देरी?
लिमिटेशन एक्ट धारा 5 की शर्तें
पर्याप्त कारण (Sufficient Cause): कोविड जैसी फोर्स मेजर परिस्थितियाँ
सार्वजनिक हित: सरकारी ज़मीन जैसे मामले
मेरिट पर प्रभाव: तकनीकी देरी से मामले का निपटारा न रोका जाए
न्यायिक उदारता की सीमाएँ
ईशा भट्टाचार्जी केस (2013): “उदारता का मतलब लापरवाही को बढ़ावा देना नहीं”
सतिश चंद शिवहरे केस (2022): “सरकार को विशेष छूट नहीं मिल सकती”
विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया
वकील समुदाय का नज़रिया
दिल्ली हाई कोर्ट के वकील राजीव मेहता ने कहा:
“यह फैसला सरकारी और निजी पक्षों के बीच न्यायिक संतुलन को दर्शाता है। देरी माफी के साथ जुर्माना एक सटीक समाधान है।”
ज़मीन अधिकार कार्यकर्ताओं की चिंता
सामाजिक कार्यकर्ता अनीता राठौर ने आगाह किया:
“सरकारी ज़मीनों पर कब्ज़े के झूठे दावे बढ़ सकते हैं। न्यायालयों को ऐसे मामलों में सख्त सबूत माँगने चाहिए।”
केस का प्रभाव: भविष्य के मामलों पर क्या असर होगा?
सरकारी विभागों के लिए सबक: फाइलों की प्रक्रिया में तेज़ी लानी होगी।
निजी दावेदारों के लिए राहत: तकनीकी देरी के आधार पर मेरिट आधारित केस नहीं रुकेंगे।
कोविड का प्रभाव: अन्य केसों में भी “महामारी” को देरी का वैध कारण माना जा सकेगा।
यह फैसला सरकारी और निजी हितों के बीच न्यायिक संतुलन का उदाहरण है, जो भविष्य के मामलों के लिए मिसाल कायम करता है। 🏛️⚖️
Author Profile
SHRUTI MISHRA
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