भ्रष्टाचार मामला: सुप्रीम कोर्ट ने बहाल की ट्रायल, सरकारी अधिकारी पर असंगत संपत्ति का आरोप
भ्रष्टाचार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी अधिकारी के खिलाफ असंगत संपत्ति के आरोपों को बहाल किया। जानें कैसे हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल जारी रखने का आदेश दिया।
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भ्रष्टाचार मामला: 23 साल पुराने केस में नया मोड़
सुप्रीम कोर्ट ने 26 मार्च, 2025 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए चेन्नई के सरकारी अधिकारी जी. ईश्वरन के खिलाफ चल रहे असंगत संपत्ति मामले में ट्रायल को फिर से शुरू करने का आदेश दिया। यह मामला 2001-2008 के बीच अधिकारी की आय से अधिक संपत्ति जमा करने का है, जिसमें हाईकोर्ट ने 2017 में आरोप खारिज कर दिए थे। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को “कानूनी सिद्धांतों के विपरीत” बताते हुए ट्रायल बहाल किया।
मामले की पृष्ठभूमि: 2001-2008 में जमा हुईं 26.88 लाख रुपये की असंगत संपत्ति
आरोप: 1980 में सर्वेयर के पद पर नियुक्त ईश्वरन ने 2001 से 2008 के बीच अपनी आय से 26.88 लाख रुपये अधिक संपत्ति जमा की।
जांच: शिकायत मिलने पर वर्ष 2009 में FIR दर्ज की गई। 2013 में तमिलनाडु सरकार ने भ्रष्टाचार निरोधक कानून (PCA) की धारा 13(1)(e) के तहत सैंक्शन देकर केस चलाने की मंजूरी दी।
चार्जशीट: 2013 में ही चार्जशीट दाखिल की गई, जिसमें पूनम नगर के घर, कार खरीदने के लिए लोन और परिवार के सदस्यों के नाम संपत्तियों को शामिल किया गया।
हाईकोर्ट ने क्यों खारिज किए थे आरोप?
2017 में हाईकोर्ट ने धारा 482 CrPC के तहत केस को रद्द करते हुए दो मुख्य आधार दिए:
सैंक्शन में देरी: सरकार ने 2012 में सैंक्शन का अनुरोध किया, लेकिन 2013 में मंजूरी दी। हाईकोर्ट ने इसे “यांत्रिक प्रक्रिया” बताया।
सबूतों की कमी: ईश्वरन की पत्नी के रियल एस्टेट व्यवसाय और बेटी को दिए गए 7.8 लाख रुपये के उपहार को साबित नहीं किया जा सका।
असंगत संपत्ति की गणना में विवाद
प्रोसेक्यूशन का दावा: ईश्वरन की कुल संपत्ति 43.78 लाख रुपये थी, जबकि उनकी आय केवल 16.90 लाख रुपये थी।
बचाव पक्ष: अधिकारी ने दावा किया कि उनकी पत्नी ने रियल एस्टेट से 18.51 लाख रुपये कमाए और बेटी को दादा से 7.8 लाख रुपये का उपहार मिला।
कोर्ट की टिप्पणी: “ट्रायल के दौरान ही इन दावों की जांच हो सकती है। डिस्चार्ज के चरण में सबूतों का गहन विश्लेषण नहीं किया जा सकता।”
सुप्रीम कोर्ट ने क्यों बहाल किया ट्रायल?
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को कानूनी भूल बताते हुए तीन प्रमुख बिंदुओं पर आपत्ति जताई:
मिनी-ट्रायल की मनाही: हाईकोर्ट ने सबूतों का विस्तृत विश्लेषण कर मिनी-ट्रायल की प्रक्रिया अपनाई, जो धारा 482 CrPC के दायरे से बाहर है।
सैंक्शन की वैधता: सैंक्शन में देरी या त्रुटि को ट्रायल के दौरान उठाया जाना चाहिए, न कि केस को शुरुआत में ही खारिज करना।
सिद्धांतों की अनदेखी: सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णयों (जैसे रेनू कुमारी बनाम संजय कुमार, 2008) में स्पष्ट किया गया है कि असंगत संपत्ति के मामलों में ट्रायल पूरा होना चाहिए।
कोर्ट ने कहा: “हाईकोर्ट ने यह भूल की कि उसे यह तय नहीं करना था कि आरोप साबित होंगे या नहीं, बल्कि यह देखना था कि प्राइमा फेसी केस बनता है या नहीं।”
भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा 13(1)(e) क्यों है अहम?
परिभाषा: यह धारा सरकारी अधिकारियों पर आय से अधिक संपत्ति जमा करने का आरोप लगाने की अनुमति देती है।
सजा: 7 साल तक की कैद और जुर्माना।
साबित करने का बोझ: अभियोजन को यह साबित करना होता है कि संपत्ति वैध आय से अधिक है। आरोपी को यह साबित करना होता है कि संपत्ति का स्रोत वैध है।
फैसले का भविष्य पर प्रभाव
सरकारी अधिकारियों के लिए चेतावनी: असंगत संपत्ति जमा करने वालों के खिलाफ तेजी से कार्रवाई होगी।
न्यायिक प्रक्रिया में सुधार: कोर्ट्स अब डिस्चार्ज या धारा 482 का दुरुपयोग करके केस नहीं रोक सकेंगे।
जनता का भरोसा: भ्रष्टाचार के मामलों में त्वरित ट्रायल से न्याय प्रणाली में विश्वास बढ़ेगा।
यह फैसला भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में एक मील का पत्थर है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि “प्राइमा फेसी सबूत” होने पर ट्रायल रोकना न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है। सरकारी अधिकारियों को यह संदेश गया है कि असंगत संपत्ति जमा करने पर उन्हें कानूनी प्रक्रिया का सामना करना पड़ेगा।
Author Profile
SHRUTI MISHRA
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