सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: एक्स-पार्टी डिक्री और देरी माफी पर महत्वपूर्ण निर्देश
भविष्य के मामलों के लिए सीख:
एक्स-पार्टी डिक्री को चुनौती देने में तात्कालिकता जरूरी।
कानूनी प्रक्रियाओं में लापरवाही महंगी पड़ सकती है।
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परिचय
भारत के ने हाल ही में एक्स-पार्टी डिक्री और देरी माफी (condonation of delay) से संबंधित एक महत्वपूर्ण मामले में अपना निर्णय सुनाया। यह फैसला सिविल अपील संख्या 2177/2024 में आया, जहां न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति सुधांशु ढुलिया ने संपत्ति समझौते और विशिष्ट प्रदर्शन के मुकदमे से जुड़े मुद्दों पर गहन विचार किया।
मामले की पृष्ठभूमि
पक्षकार: अपीलकर्ता के. रामासामी बनाम प्रतिवादी आर. नल्लम्मल एवं अन्य।
मुख्य मुद्दा: 13 अप्रैल 2016 को पारित एक्स-पार्टी डिक्री को रद्द करने की मांग, जिसमें 1312 दिनों की देरी को माफ करने का अनुरोध किया गया था।
संपत्ति समझौता: वर्ष 2013 में प्रतिवादियों (जो संपत्ति के साझा मालिक थे) ने एकपीलकर्ता को संपत्ति बेचने का समझौता किया। 20 लाख रुपये के इस समझौते में 5 लाख रुपये अग्रिम दिए गए।
मुकदमे की प्रगति: प्रतिवादियों ने लिखित बयान दाखिल नहीं किया, जिसके कारण ट्रायल कोर्ट ने एक्स-पार्टी डिक्री पारित की। बाद में, एक्ज़ीक्यूशन प्रोसीडिंग्स (2018) में प्रतिवादियों के कानूनी उत्तराधिकारी शामिल हुए, लेकिन उन्होंने डिक्री को चुनौती देने में देरी की।
कानूनी मुद्दे
1. देरी माफी (Condonation of Delay)
Collector, Land Acquisition, Anantnag Vs. Mst. Katiji (1987): सुप्रीम कोर्ट ने तकनीकी देरी को नज़रअंदाज़ करते हुए न्याय के हित को प्राथमिकता दी।
H. Dohil Constructions Company Vs. Nahar Exports Ltd. (2015): देरी के कारणों को तार्किक और व्यावहारिक तरीके से देखने पर जोर।
2. एक्स-पार्टी डिक्री को चुनौती
प्रतिवादियों का दावा: वकील ने फाइलें देर से सौंपीं, जिससे देरी हुई।
कोर्ट का निष्कर्ष: प्रतिवादियों को एक्ज़ीक्यूशन प्रोसीडिंग्स (2018) के दौरान डिक्री की जानकारी थी, लेकिन उन्होंने समय पर कार्रवाई नहीं की।
सुप्रीम कोर्ट का तर्क
देरी का कोई वाजिब कारण नहीं:
प्रतिवादियों ने 2018 में ही डिक्री के बारे में जान लिया था, लेकिन 2020 तक याचिका दाखिल नहीं की।
“क़ानून आलसी को नहीं, मेहनती को सहायता देता है” – कोर्ट ने इस सिद्धांत को दोहराया।
झूठे दावों की पहचान:
वकील द्वारा फाइलों के गुम होने का दावा अविश्वसनीय पाया गया, क्योंकि उसी वकील ने बाद में कानूनी उत्तराधिकारियों का प्रतिनिधित्व किया।
संपत्ति के मूल्य में वृद्धि:
अपीलकर्ता ने 15 लाख रुपये की शेष राशि जमा कर दी थी। कोर्ट ने माना कि संपत्ति के मूल्य में वृद्धि का लाभ उसे मिलना चाहिए।
निष्कर्ष: फैसले का प्रभाव
ट्रायल कोर्ट के आदेश की बहाली: हाईकोर्ट के आदेश को पलटते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने देरी माफी से इनकार कर दिया।
भविष्य के मामलों के लिए सीख:
एक्स-पार्टी डिक्री को चुनौती देने में तात्कालिकता जरूरी।
कानूनी प्रक्रियाओं में लापरवाही महंगी पड़ सकती है।
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SHRUTI MISHRA
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