Breaking News चार्जशीट मंजूरी के बिना सेवा से बर्खास्तगी: झारखंड सरकार बनाम रुक्मा केश मिश्रा मामले का विश्लेषण
झारखंड सरकार बनाम रुक्मा केश मिश्रा मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सेवा विवाद पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। जानें चार्जशीट मंजूरी, अनुशासनिक कार्यवाही, और संवैधानिक प्रावधानों से जुड़े महत्वपूर्ण पहलू।
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झारखंड सरकार बनाम रुक्मा केश मिश्रा
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में झारखंड सरकार बनाम रुक्मा केश मिश्रा के मामले में एक अहम फैसला सुनाया है। यह मामला एक सिविल सेवा अधिकारी की बर्खास्तगी से जुड़ा है, जहां चार्जशीट जारी करने के लिए मुख्यमंत्री की मंजूरी को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ। इस लेख में हम इस केस के पीछे के तथ्यों, कानूनी प्रावधानों, और न्यायालय के निर्णय को विस्तार से समझेंगे।
मामले की पृष्ठभूमि: क्यों उठा विवाद?
याचिकाकर्ता: रुक्मा केश मिश्रा (सिविल सेवा अधिकारी)
अपीलकर्ता: झारखंड सरकार और उसके तीन अधिकारी
केस नंबर: सिविल अपील संख्या 2025 (एसएलपी (सी) संख्या 19223/2024 से उत्पन्न)
वर्ष: 2025
मामले का प्रकार: सिविल सेवा अनुशासनिक कार्यवाही और संवैधानिक प्रावधान
घटनाक्रम:
2014 में, रुक्मा केश मिश्रा पर वित्तीय अनियमितताएं, दस्तावेजों में जालसाजी, और भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए।
झारखंड सरकार ने 13 जनवरी 2014 को अनुशासनिक कार्यवाही शुरू करने का प्रस्ताव रखा, जिसमें 9 आरोपों वाली चार्जशीट शामिल थी।
21 मार्च 2014 को मुख्यमंत्री ने इस प्रस्ताव को मंजूरी दी, और 4 अप्रैल 2014 को चार्जशीट जारी की गई।
2015 में जांच अधिकारी ने रुक्मा को 6 आरोपों में दोषी ठहराया।
2017 में राज्य कैबिनेट ने बर्खास्तगी की सिफारिश को स्वीकृति दी, और 16 जून 2017 को गवर्नर के आदेश से रुक्मा को सेवा से हटा दिया गया।
उच्च न्यायालय का फैसला: क्यों रद्द हुई बर्खास्तगी?
रुक्मा ने आरटीआई के माध्यम से जाना कि चार्जशीट जारी करते समय मुख्यमंत्री की मंजूरी नहीं ली गई थी। इस आधार पर उन्होंने झारखंड उच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
उच्च न्यायालय के मुख्य बिंदु:
सिंगल जज का फैसला (2023):
चार्जशीट जारी करने के लिए “सक्षम प्राधिकारी” (मुख्यमंत्री) की मंजूरी अनिवार्य है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 311 और B.V. Gopinath बनाम भारत सरकार (2014) के फैसले को आधार बनाया गया।
बर्खास्तगी के आदेश को रद्द करते हुए रुक्मा को सेवा में बहाल करने का आदेश दिया।
डिवीजन बेंच की पुष्टि (2023):
चार्जशीट पहले से तैयार थी, जबकि मंजूरी बाद में ली गई। यह प्रक्रियात्मक गड़बड़ी थी।
अनुशासनिक कार्यवाही को अवैध घोषित किया गया।
सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय: क्या कहा गया?
सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया और झारखंड सरकार की अपील को स्वीकार किया।
मुख्य तर्क:
1930 और 2016 के नियमों का अंतर:
1930 के नियमों में चार्जशीट जारी करने के लिए किसी विशेष प्राधिकारी का उल्लेख नहीं था।
2016 के नियम लागू होने के बाद भी, पुराने मामलों पर पिछले नियम ही लागू होते हैं।
मुख्यमंत्री की मंजूरी का प्रभाव:
प्रस्ताव में चार्जशीट का मसौदा पहले से मौजूद था। मुख्यमंत्री की मंजूरी को चार्जशीट की स्वीकृति माना जाना चाहिए।
शारदुल सिंह बनाम एमपी सरकार (1970) और P.V. Srinivasa Sastry बनाम CAG (1993) के फैसलों का हवाला देते हुए कहा गया कि अनुच्छेद 311(1) केवल बर्खास्तगी के अधिकार पर लागू होता है, न कि चार्जशीट जारी करने पर।
B.V. Gopinath केस का सीमित दायरा:
B.V. Gopinath और प्रमोद कुमार के फैसले केवल केंद्रीय नियमों पर लागू होते हैं, झारखंड के नियमों पर नहीं।
निष्कर्ष: कानूनी मिसाल और भविष्य के प्रभाव
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि चार्जशीट जारी करने के लिए मुख्यमंत्री की अलग से मंजूरी अनिवार्य नहीं है, यदि प्रारंभिक प्रस्ताव में ही इसकी स्वीकृति शामिल है। यह फैसला सिविल सेवा अनुशासनिक कार्यवाही में पारदर्शिता और नियमों के सही अनुपालन को सुनिश्चित करता है।
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SHRUTI MISHRA
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