सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान भ्रष्टाचार मामले में एसीबी ट्रैप को खारिज करते हुए अधिकारियों को दी मुक्ति
सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान के जिला आपूर्ति विभाग के अधिकारियों को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (धारा 7 और 13) के तहत रिश्वत के आरोप से बरी किया। जानें क्यों शिकायतकर्ता के बयान में विसंगतियों और स्वतंत्र गवाहों के खंडन ने फैसले को प्रभावित किया।
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मामले का संक्षिप्त विवरण
पीठ: न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति सुधांशु धुलिया
तिथि: 7 मार्च, 2025
स्थान: नई दिल्ली
सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान के जिला आपूर्ति विभाग में कार्यरत एक एनफोर्समेंट इंस्पेक्टर (मदन लाल) और ऑफिस असिस्टेंट (नरेंद्र कुमार) के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (पीसी एक्ट) के तहत रिश्वत की मांग और स्वीकृति के मामले में दोषसिद्धि को पलटते हुए उन्हें बरी कर दिया। निचली अदालत और हाईकोर्ट ने दोनों अभियुक्तों को दोषी ठहराया था, जिसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई थी।
मुख्य आरोप और अदालती प्रक्रिया
शिकायत और जाल: पीडब्ल्यू-5 (शिकायतकर्ता) ने राजस्थान ट्रेड अथॉरिटी (RTAL) लाइसेंस के लिए आवेदन किया था। आरोप था कि इंस्पेक्टर मदन लाल (दूसरा अभियुक्त) ने निरीक्षण के दौरान लाइसेंस जारी करने के बदले ₹200 की मांग की। ऑफिस असिस्टेंट नरेंद्र कुमार (पहला अभियुक्त) ने बाद में ₹400 की मांग की। शिकायतकर्ता ने एंटी-करप्शन ब्यूरो (ACB) से संपर्क किया, जिसने 30 जून, 1994 को जाल सजाया।
सबूतों में विसंगतियाँ:
मांग की रकम में अंतर: शिकायतकर्ता (पीडब्ल्यू-5) ने अदालत में गवाही देते हुए रकम की मांग को लेकर भ्रम जताया। उसने शुरुआती शिकायत (एक्जिबिट पी-1) में ₹400 की बात कही, लेकिन बाद में गवाही में “सटीक रकम याद नहीं” बताई।
स्वतंत्र गवाहों का बयान: पीडब्ल्यू-1 और पीडब्ल्यू-2 (सरकारी कर्मचारी) ने कहा कि उन्होंने रिश्वत की लेन-देन की प्रक्रिया नहीं देखी। उनके अनुसार, कुछ नोट जमीन पर बिखरे हुए थे, जिन्हें एसीबी टीम ने उठवाया।
झगड़े का दावा: अभियुक्तों ने आरोप लगाया कि शिकायतकर्ता ने जबरन नोट थमाए और झगड़े के दौरान नोट बिखर गए।
कानूनी प्रावधान:
धारा 7(2) और 13(1)(d) पीसी एक्ट: रिश्वत की मांग और स्वीकृति।
धारा 20: रिश्वत की स्वीकृति होने पर अभियुक्त के खिलाफ अनुमान लगाया जा सकता है।
धारा 164 CrPC: मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज बयान।
सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष
मांग का सबूत नाकाफी: शिकायतकर्ता के बयान में विसंगतियों और स्वतंत्र गवाहों के खंडन के कारण “मांग” साबित नहीं हुई।
स्वीकृति पर संदेह: एसीबी टीम के दावे (हाथ धोने पर पिंक सोल्यूशन) के बावजूद, स्वतंत्र गवाहों ने नोट बिखरने की बात कही, जिससे “स्वीकृति” पर संदेह पैदा हुआ।
धारा 20 का अनुमान लागू नहीं: चूंकि मांग और स्वीकृति साबित नहीं हुई, अभियुक्तों के खिलाफ कानूनी अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
न्यायाधीशों के उद्धरण
न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन: “सबूतों में उचित संदेह (reasonable doubt) है। शिकायतकर्ता के बयान और स्वतंत्र गवाहों के विरोधाभासों के कारण अभियुक्तों को लाभ देना आवश्यक है।”
न्यायमूर्ति सुधांशु धुलिया: “भ्रष्टाचार के मामलों में सख्ती जरूरी है, लेकिन सबूतों की कमी के मामले में निर्दोषों को सजा नहीं दी जा सकती।”
पिछले आदेशों का संदर्भ
स्टेट ऑफ महाराष्ट्र बनाम धोंडीराम (2004): रिश्वत के मामलों में “मांग और स्वीकृति” का स्पष्ट सबूत जरूरी।
बनारसी दास बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा (2010): स्वतंत्र गवाहों के बयानों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
निर्णय का प्रभाव
अदालत ने निचली अदालत और हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए अभियुक्तों की सजा रद्द की। उनकी जमानत बॉन्ड भी रद्द कर दी गई। यह फैसला भ्रष्टाचार मामलों में सबूतों की गुणवत्ता और स्वतंत्र गवाहों की भूमिका पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है।
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SHRUTI MISHRA
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