सुप्रीम कोर्ट ने 28 साल पुराने हत्या केस में विनोद कुमार को दी मुक्ति: “सबूत नहीं थे पुख्ता”

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सुप्रीम कोर्ट ने 28 साल पुराने हत्या केस —

नई दिल्ली, 13 फरवरी 2025: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 1995 में दिल्ली के शाहदारा इलाके में धर्मेंद्र की हत्या के मामले में आरोपी विनोद कुमार को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष के पास आरोप साबित करने के लिए पर्याप्त “परिस्थितिजन्य सबूत” नहीं थे। यह फैसला जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने सुनाया।

क्या था मामला?

  • 12 जुलाई 1995 को दोपहर में विनोद कुमार ने पीड़ित धर्मेंद्र को उसके घर से बाहर बुलाया।

  • धर्मेंद्र की माँ (PW-3) के अनुसार, विनोद ने कहा कि “जल्दी लौट आएंगे”, लेकिन धर्मेंद्र कभी वापस नहीं आया।

  • 14 जुलाई को धर्मेंद्र का शव एक इमारत की छत के बाथरूम में मिला, जिसकी गर्दन में रस्सी और हाथ पीछे बंधे थे।

न्यायालय ने क्यों दी मुक्ति?

  1. अंतिम बार साथ देखे जाने का सबूत नाकाफी: पीड़ित की माँ (PW-3) के बयान में विसंगतियाँ पाई गईं।

  2. भागने का आरोप खारिज: कोर्ट ने कहा कि FIR दर्ज होने के बाद विनोद का घर छोड़ना अपराध का सबूत नहीं है।

  3. खून के धब्बे वाले कपड़ों की रिकवरी संदिग्ध: इस सबूत को सही प्रक्रिया के बिना स्वीकार नहीं किया गया।

  4. मकसद का अभाव: पीड़ित और आरोपी के बीच कोई दुश्मनी नहीं थी।

क्या कहा कोर्ट ने?

पीठ ने जोर देकर कहा, “परिस्थितिजन्य सबूतों का सिलसिला इतना पूर्ण होना चाहिए कि आरोपी के बचाव की कोई गुंजाइश न बचे। इस मामले में दो प्रमुख सबूत अधूरे थे।”

न्यायिक प्रक्रिया में खामियाँ

  • सत्र न्यायालय ने गवाहों के पूर्व बयानों को गलत तरीके से दर्ज किया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने “कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन” बताया।

  • PW-3 के बयान में “सुधार” और “विरोधाभास” को विश्वसनीय नहीं माना गया।

विशेषज्ञों की राय

कानूनी विशेषज्ञ डॉ. राजीव शुक्ला कहते हैं, “यह फैसला परिस्थितिजन्य सबूतों की सीमाओं को रेखांकित करता है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संदेह का लाभ आरोपी को ही मिलना चाहिए।”


निष्कर्ष: 28 साल तक चले इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला भारतीय न्याय प्रणाली में “निर्दोषता की धारणा” को मजबूत करता है। फैसले के बाद विनोद कुमार की जमानत रद्द कर दी गई है।


✍️ लेखक: Shruti Mishra कानून संवाददाता | स्रोत: सुप्रीम कोर्ट का आदेश (13 फरवरी 2025)

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