सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: महिला न्यायिक अधिकारियों की बर्खास्तगी रद्द, लैंगिक संवेदनशीलता और न्यायिक समीक्षा पर जोर
PROBOTION सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के माध्यम से न्यायिक व्यवस्था में लैंगिक संवेदनशीलता और मानवीय दृष्टिकोण को मजबूती दी है। न्यायमूर्ति नागरथ्ना ने कहा, “न्यायाधीशों का कार्य केवल कानूनी प्रावधानों को लागू करना नहीं, बल्कि समाज की नैतिक जिम्मेदारी भी उठाना है। महिला अधिकारियों के साथ होने वाले भेदभाव से न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुंचती है।”
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नई दिल्ली:
सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें दो महिला न्यायिक अधिकारियों—सरिता चौधरी और अदिति कुमार शर्मा—को प्रोबेशन के दौरान बर्खास्त किया गया था। कोर्ट ने इन बर्खास्तगियों को “मनमाना, कलंकित करने वाला और संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन” बताया। यह फैसला न्यायपालिका में महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता, प्रोबेशनरी कर्मचारियों के अधिकारों और न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता पर एक मिसाल कायम करता है।
मामले की पृष्ठभूमि
नियुक्ति और प्रोबेशन:
सरिता चौधरी को 2016 में और अदिति शर्मा को 2018 में मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा में सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के रूप में नियुक्त किया गया। दोनों का प्रोबेशन 2 साल का था, जिसे 3 साल तक बढ़ाया जा सकता था।
मई 2023 में, हाईकोर्ट के प्रशासनिक समिति ने इनके सहित 6 महिला अधिकारियों की सेवाएं समाप्त करने की सिफारिश की, जिसे फुल कोर्ट ने मंजूर किया।
बर्खास्तगी के कारण:
हाईकोर्ट ने इनके वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन (ACR) में “खराब प्रदर्शन”, “शिकायतें” और “इकाई मानदंड (यूनिट वैल्यू)” पूरा न करने का हवाला दिया।
सरिता पर 2019-2022 के दौरान 15 शिकायतें दर्ज की गईं, जबकि अदिति के खिलाफ 2021-2022 में 5 शिकायतें थीं। हालांकि, अधिकांश शिकायतों को चेतावनी देकर बंद कर दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट में चुनौती:
दोनों अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने स्वत: संज्ञान लेते हुए सुओ मोटो याचिका दायर की।
सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख तर्क
1. प्रक्रियात्मक अनियमितताएं और प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन
ACR की विसंगतियां: कोर्ट ने पाया कि हाईकोर्ट ने ACR में दर्ज प्रतिकूल टिप्पणियों को समय पर संबंधित अधिकारियों को नहीं बताया। उदाहरण के लिए, सरिता के 2021 के ARC में “E-खराब” ग्रेडिंग अक्टूबर 2023 में (बर्खास्तगी के 5 महीने बाद) सूचित की गई।
शिकायतों का दुरुपयोग: अदिति के मामले में, एक शिकायत (क्र. 775/2022) वापस ले ली गई थी, लेकिन प्रशासनिक समिति ने इसे “लंबित” दिखाया। कोर्ट ने इसे “तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करना” बताया।
सुधार के अवसर का अभाव: ACR में सुधार के लिए दी गई सलाह (जैसे, “वकीलों के साथ सौहार्द बनाए रखें”) को गंभीरता से नहीं लिया गया।
2. कोविड-19 और व्यक्तिगत संकटों की अनदेखी
अदिति शर्मा का केस: 2021 में अदिति को कोविड-19 संक्रमण, गर्भपात और भाई के कैंसर जैसे संकटों का सामना करना पड़ा। हाईकोर्ट ने इन्हें ACR ग्रेडिंग में “छूट” देने के बजाय, उनके प्रदर्शन को “औसत” बताया।
सरिता चौधरी का केस: कोविड के दौरान कोर्ट के सीमित संचालन और स्टाफ की कमी के बावजूद, उनके “इकाई मानदंड” को नजरअंदाज किया गया।
3. लैंगिक पूर्वाग्रह और संवेदनहीनता
महिला न्यायाधीशों के प्रति दृष्टिकोण: कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने महिला अधिकारियों के स्वास्थ्य और पारिवारिक जिम्मेदारियों को “कमजोरी” माना, जो अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन है।
अंतरराष्ट्रीय मानकों का संदर्भ: न्यायमूर्ति नागरथ्ना ने CEDAW (महिलाओं के खिलाफ भेदभाव का उन्मूलन) और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के दिशा-निर्देशों का हवाला देते हुए कहा कि “गर्भपात या स्वास्थ्य समस्याएं किसी भी महिला की पेशेवर योग्यता को कम नहीं करतीं।”
4. कानूनी पूर्वाधारों का उल्लंघन
अनुच्छेद 311 का उल्लंघन: कोर्ट ने अनूप जैसवाल बनाम भारत सरकार (1984) और दीप्ति प्रकाश बनर्जी बनाम सत्येंद्र नाथ बोस नेशनल सेंटर (1999) के फैसलों को दोहराया, जिसमें कहा गया था कि “प्रोबेशनरी कर्मचारी को बर्खास्त करने से पहले उसे जवाब देने का मौका देना अनिवार्य है, यदि आरोप उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाते हों।”
स्टिग्मेटिक टर्मिनेशन: बर्खास्तगी के आदेश में “खराब प्रदर्शन” और “शिकायतें” जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना कलंकित करने वाला माना गया, जो भविष्य में इन अधिकारियों के करियर को प्रभावित कर सकता था।
फैसले का व्यापक प्रभाव
न्यायिक पारदर्शिता:
ACR की प्रतिकूल टिप्पणियों को तुरंत संबंधित अधिकारी को सूचित करना अनिवार्य होगा।
शिकायतों की जांच में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत (सुनवाई का अधिकार) का पालन करना होगा।
महिला न्यायाधीशों के लिए राहत:
कोर्ट ने कहा कि “महिलाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को नजरअंदाज करना लैंगिक भेदभाव है।”
न्यायिक सेवाओं में मातृत्व अवकाश और चिकित्सीय सुविधाओं को प्राथमिकता देने का निर्देश दिया गया।
प्रोबेशनरी कर्मचारियों के अधिकार:
रूल 11(c) की सीमाएं: मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा नियम के तहत प्रोबेशन समाप्त करने का अधिकार “असीमित” नहीं है। इसे योग्यता और पारदर्शिता के आधार पर ही इस्तेमाल किया जा सकता है।
निष्कर्ष: न्यायपालिका में लैंगिक संतुलन की ओर
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के माध्यम से न्यायिक व्यवस्था में लैंगिक संवेदनशीलता और मानवीय दृष्टिकोण को मजबूती दी है। न्यायमूर्ति नागरथ्ना ने कहा, “न्यायाधीशों का कार्य केवल कानूनी प्रावधानों को लागू करना नहीं, बल्कि समाज की नैतिक जिम्मेदारी भी उठाना है। महिला अधिकारियों के साथ होने वाले भेदभाव से न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुंचती है।”
इस फैसले के बाद, सभी हाईकोर्ट्स को निर्देश दिया गया है कि वे प्रोबेशनरी अधिकारियों के मामलों में समग्र मूल्यांकन करें और उनकी व्यक्तिगत चुनौतियों को ध्यान में रखें। साथ ही, ACR प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए जाएंगे।
समाचार कोड: SC_JudicialOfficers_2025
संवाददाता: विधिक समाचार नेटवर्क
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SHRUTI MISHRA
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