सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय होम्योपैथी आयोग के अध्यक्ष पद की नियुक्ति रद्द की: जानिए पूरा मामला
सुप्रीम कोर्ट ने 12 फरवरी 2025 को राष्ट्रीय होम्योपैथी आयोग के अध्यक्ष पद की नियुक्ति को अवैध ठहराया। जानें क्यों तीसरे प्रतिवादी के पास आवश्यक अनुभव नहीं था और कैसे चयन प्रक्रिया में हुई गड़बड़ी को कोर्ट ने उजागर किया।
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परिचय
12 फरवरी 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने डॉ. अमरगौड़ा पाटिल बनाम भारत संघ मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति दीपंकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने राष्ट्रीय होम्योपैथी आयोग (एनसीएच) के अध्यक्ष पद पर डॉ. अनिल खुराना की नियुक्ति को अवैध घोषित कर दिया। कोर्ट ने पाया कि खुराना के पास “10 साल का नेतृत्व अनुभव” नहीं था, जो एनसीएच अधिनियम, 2020 की धारा 4 के तहत अनिवार्य है।
मामले की पृष्ठभूमि
अधिनियम की आवश्यकता: एनसीएच अधिनियम, 2020 की धारा 4(2) के अनुसार, अध्यक्ष के पास होम्योपैथी में कम से कम 20 साल का अनुभव होना चाहिए, जिसमें से 10 साल “नेता” के रूप में। “नेता” को विभाग या संगठन का प्रमुख परिभाषित किया गया है।
चयन प्रक्रिया: जनवरी 2021 में, केंद्रीय आयुष मंत्रालय ने अध्यक्ष पद के लिए आवेदन मांगे। 37 उम्मीदवारों में डॉ. खुराना (तृतीय प्रतिवादी) और डॉ. पाटिल (अपीलकर्ता) शामिल थे।
नियुक्ति पर विवाद: खुराना को जुलाई 2021 में अध्यक्ष नियुक्त किया गया, लेकिन डॉ. पाटिल ने कर्नाटक हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दावा किया कि खुराना के पास “विभाग प्रमुख” का अनुभव नहीं था।
सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख तर्क
अनुभव का अभाव:
खुराना ने मई 2008 से जून 2014 तक सीसीआरएच (केंद्रीय होम्योपैथी अनुसंधान परिषद) में सहायक निदेशक के रूप में काम किया। कोर्ट ने पाया कि यह पद “विभाग प्रमुख” के बराबर नहीं था।
संगठनात्मक संरचना के अनुसार, सहायक निदेशक उप-निदेशक के अधीन काम करते हैं और स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार नहीं रखते।
दस्तावेज़ों की कमी:
चयन समिति ने खुराना के अनुभव को सत्यापित करने के लिए कोई ठोस दस्तावेज़ नहीं मांगे। आयुष मंत्रालय के सचिव ने एक पत्र (D.O. दिनांक 6 मई 2021) में दावा किया कि खुराना योग्य हैं, लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं दिया।
कानूनी भ्रष्टाचार (मैलिस इन लॉ):
कोर्ट ने कहा कि नियुक्ति प्रक्रिया सांविधिक नियमों के विपरीत थी। चयन समिति ने अपने ही प्रारंभिक संदेह को दस्तावेज़ों के बिना दूर कर दिया, जो पारदर्शिता का उल्लंघन है।
निर्णय का कानूनी आधार
धारा 4, एनसीएच अधिनियम: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “नेता” का मतलब विभाग या संगठन का प्रमुख होना है, जो प्रशासनिक और निर्णायक भूमिका निभाता है।
पूर्व निर्णयों का हवाला:
दीमाकुची टी एस्टेट केस (1958): कानूनी शब्दों की व्याख्या उसके उद्देश्य और संदर्भ के आधार पर की जानी चाहिए।
अल्का ओझा केस (2011): अनिवार्य योग्यताओं में छूट नहीं दी जा सकती, जब तक कानून में शक्ति न दी गई हो।
विशेषज्ञों की राय
वकील राजीव धवन (सुप्रीम कोर्ट): “यह फैसला सार्वजनिक नियुक्तियों में पारदर्शिता की मिसाल है। चयन समितियों को यह याद रखना चाहिए कि उनकी जवाबदेही केवल सरकार के प्रति नहीं, बल्कि जनता के प्रति भी है।”
प्रो. निधि प्रकाश (कानून विशेषज्ञ): “सुप्रीम कोर्ट ने साबित किया कि कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग सहन नहीं किया जाएगा। यह फैसला भविष्य में ऐसे मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप का आधार बनेगा।”
निर्णय के प्रभाव
तत्काल प्रभाव: डॉ. खुराना को एक सप्ताह के भीतर पद छोड़ना होगा। नई चयन प्रक्रिया शुरू की जाएगी।
सार्वजनिक नियुक्तियों पर असर:
सभी चयन प्रक्रियाओं में दस्तावेज़ी साक्ष्य अनिवार्य होंगे।
योग्यता में छूट केवल तभी दी जा सकेगी, जब कानून में प्रावधान हो।
सुधार की गुंजाइश: आयुष मंत्रालय को चयन समिति के कामकाज में पारदर्शिता बढ़ानी होगी।
भविष्य की संभावनाएँ
पुनर्विचार याचिका: आयुष मंत्रालय या डॉ. खुराना द्वारा पुनर्विचार याचिका दायर करने की संभावना कम, क्योंकि कोर्ट ने ठोस सबूतों के आधार पर फैसला सुनाया है।
विधायी सुधार: एनसीएच अधिनियम में “नेता” की परिभाषा को और स्पष्ट करने की मांग उठ सकती है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सार्वजनिक पदों पर नियुक्तियों में निष्पक्षता का प्रतीक है। यह साबित करता है कि कानूनी प्रक्रिया का पालन करना केवल फॉर्मेलिटी नहीं, बल्कि न्याय की बुनियाद है। इस निर्णय से भविष्य में चयन समितियों को जवाबदेह बनाने और योग्य उम्मीदवारों को अवसर देने की राह प्रशस्त हुई है।
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SHRUTI MISHRA
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