महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम बनाम सुभाष ब्राम्हे: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि नियोक्ताओं को पुराने समझौतों और न्यायिक आदेशों का सम्मान करना चाहिए। MSRTC के लिए यह एक चेतावनी है कि वह कर्मचारियों के हितों को अनदेखा करके एकतरफा फैसले न ले।
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केस का संक्षिप्त परिचय
सुप्रीम कोर्ट ने 27 फरवरी, 2025 को महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम (MSRTC) और कर्मचारी सुभाष ब्राम्हे के बीच चल रहे विवाद पर अपना फैसला सुनाया। यह मामला MSRTC द्वारा इंडस्ट्रियल कोर्ट और बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर की गई अपील से संबंधित है, जिसमें कर्मचारियों के वेतन संशोधन को रद्द कर दिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
2015 का वेतन संशोधन:
MSRTC ने 2015 में कर्मचारियों के वेतन में संशोधन किया, जिससे 2010 में की गई वेतन निर्धारण प्रक्रिया रद्द हो गई। कर्मचारियों ने इसे “अनुचित श्रम प्रथा” बताते हुए इंडस्ट्रियल कोर्ट में शिकायत दर्ज की।इंडस्ट्रियल कोर्ट का फैसला:
इंडस्ट्रियल कोर्ट ने 2018 में कर्मचारियों के पक्ष में फैसला सुनाते हुए 2015 के संशोधन को अमान्य कर दिया।हाईकोर्ट की पुष्टि:
बॉम्बे हाईकोर्ट ने इंडस्ट्रियल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा, जिसके बाद MSRTC ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
प्रमुख कानूनी प्रावधान
1956 का समझौता (क्लॉज 49):
दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों को 180 दिनों की निरंतर सेवा के बाद नियमित कर्मचारियों के समान वेतनमान और लाभ देने का प्रावधान।
1978 का प्रस्ताव:
1956 के समझौते को रद्द कर दिया गया।
नया नियम: दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी यदि एक वित्तीय वर्ष में 180 दिन काम करते हैं, तो उन्हें “अस्थायी पद” पर नियुक्त किया जाएगा और नियमित वेतनमान मिलेगा।
1985 का समझौता:
दैनिक वेतनभोगियों का नियमितीकरण 180 दिनों की सेवा के बाद संभव, लेकिन चयन समिति की मंजूरी और रिक्तियों की उपलब्धता अनिवार्य।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तर्क
MSRTC का पक्ष:
2015 का संशोधन सुप्रीम कोर्ट के प्रेमलाल केस (2007) के निर्देशों के अनुसार था।
2010 का वेतन निर्धारण गलत था, क्योंकि यह 1985 के समझौते की शर्तों को अनदेखा करता था।
संशोधन से समान कर्मचारियों के बीच भेदभाव खत्म होगा।
कर्मचारियों का पक्ष:
2015 का संशोधन बिना सूचना के किया गया और प्रेमलाल केस की व्याख्या गलत ढंग से की गई।
2010 का वेतन निर्धारण इंडस्ट्रियल कोर्ट के 2008 के आदेश के अनुसार था, जिसे MSRTC ने चुनौती नहीं दी।
अधिकांश कर्मचारी सेवानिवृत्त हो चुके हैं; संशोधन से उन्हें नुकसान होगा।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
प्रेमलाल केस की प्रासंगिकता:
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि 1956 का समझौता और 1985 का समझौता अलग-अलग क्षेत्रों में लागू होते हैं।
1956 का समझौता केवल वेतनमान से संबंधित है, जबकि 1985 का समझौता नियमितीकरण की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है।
2015 के संशोधन की आलोचना:
संशोधन बिना कर्मचारियों को सूचित किए गए थे।
MSRTC ने 2008 के इंडस्ट्रियल कोर्ट के आदेश को चुनौती नहीं दी, जिसके आधार पर 2010 का वेतन निर्धारण हुआ था।
अंतिम फैसला:
सुप्रीम कोर्ट ने MSRTC की अपील खारिज कर दी और इंडस्ट्रियल कोर्ट व हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा।
2015 का वेतन संशोधन अवैध घोषित किया गया।
निर्णय के प्रभाव
कर्मचारियों के लिए राहत:
सेवानिवृत्त और वर्तमान कर्मचारियों को 2010 के वेतनमान के अनुसार लाभ मिलते रहेंगे।
MSRTC के लिए सबक:
भविष्य में किसी भी नीतिगत बदलाव से पहले कर्मचारियों से परामर्श अनिवार्य होगा।
कानूनी स्पष्टता:
1956, 1978, और 1985 के प्रावधानों की व्याख्या सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्पष्ट की गई, जो भविष्य के मामलों में मार्गदर्शक होगी।
निष्कर्ष
यह फैसला श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करने वाला एक मील का पत्थर है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि नियोक्ताओं को पुराने समझौतों और न्यायिक आदेशों का सम्मान करना चाहिए। MSRTC के लिए यह एक चेतावनी है कि वह कर्मचारियों के हितों को अनदेखा करके एकतरफा फैसले न ले।
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SHRUTI MISHRA
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