सुप्रीम कोर्ट ने बाल कस्टडी विवाद में पिता को दिए अंतरिम अधिकार: ‘बच्चे की भलाई’ को माना सर्वोपरि
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परस्पर सहमति तलाक के बाद भी पिता को मिलेगा हर रविवार बेटे से मिलने का अधिकार, कोर्ट ने कहा— “माता-पिता का झगड़ा बच्चे के अधिकारों में बाधक नहीं बने”
नई दिल्ली, 17 मार्च 2025 — सुप्रीम कोर्ट ने तेलंगाना के एक विवादित बाल कस्टडी मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए पिता किरण राजू पेनुमाचा को अपने नाबालिग बेटे से हर रविवार मिलने का अंतरिम अधिकार दिया है। कोर्ट ने माता तेजस्विनी चौधरी को निर्देश दिया कि वह बच्चे को हर हफ्ते पिता के साथ 2 घंटे बिताने देने में बाधा न डालें। हालांकि, मामले को फैमिली कोर्ट में फिर से सुनवाई के लिए भेजते हुए जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ ने स्पष्ट किया कि “बच्चे की भलाई” ही इस मामले में सबसे बड़ी प्राथमिकता है।
केस की पृष्ठभूमि: तलाक से लेकर कस्टडी तक का सफर
विवाह और तलाक: किरण राजू और तेजस्विनी का 2012 में हिंदू रीति-रिवाज से विवाह हुआ। 2014 में उनके यहां एक बेटे का जन्म हुआ। 2021 में दोनों ने परस्पर सहमति से तलाक ले लिया।
कस्टडी समझौता: फैमिली कोर्ट ने बेटे की स्थायी कस्टडी मां को दी, जबकि पिता को हर वीकेंड (शनिवार-रविवार) बेटे के साथ रहने का अधिकार मिला।
विवाद की शुरुआत: पिता का आरोप है कि 2021 के बाद मां ने बेटे को उनसे मिलने से रोक दिया। इसके बाद पिता ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
कोर्ट की कार्यवाही: एक्जीक्यूशन पिटीशन vs मॉडिफिकेशन याचिका
पिता की याचिका: किरण राजू ने 2023 में एक्जीक्यूशन पिटीशन (E.P. No.7/2023) दायर कर कोर्ट से समझौते को लागू करने की मांग की।
मां की प्रतिक्रिया: तेजस्विनी ने मॉडिफिकेशन याचिका (I.A. No.865/2023) दाखिल कर वीकेंड कस्टडी को रद्द करने की मांग की। उनका दावा था कि बेटा पिता के साथ असहज महसूस करता है।
फैमिली कोर्ट का आदेश: जनवरी 2024 में कोर्ट ने पिता के पक्ष में फैसला देते हुए एडवोकेट कमिश्नर नियुक्त किया, ताकि कस्टडी समझौते को लागू किया जा सके।
हाई कोर्ट ने पलटा फैसला: तेलंगाना हाई कोर्ट ने मार्च 2024 में मामले को फैमिली कोर्ट में वापस भेज दिया और दोनों याचिकाओं को नए सिरे से सुनने का निर्देश दिया।
सुप्रीम कोर्ट की मुख्य टिप्पणियाँ: “बच्चे का हित सबसे ऊपर”
अंतरिम अधिकार: पिता को हर रविवार दोपहर 4 से 6 बजे तक बेटे से मिलने का अधिकार। मां को बच्चे को पिता के घर भेजना होगा, जहां एक केयरटेकर मौजूद रहेगा।
मनोवैज्ञानिक पहलू: कोर्ट ने माना कि बच्चे की मानसिक सेहत नाजुक है। जजों ने कहा— “बच्चा न तो खिलौना है और न ही संपत्ति, जिसे माता-पिता आपस में बांट लें।”
माता की आलोचना: कोर्ट ने तेजस्विनी को फटकार लगाते हुए कहा कि वह पिता के अधिकारों में बाधक न बने।
फैमिली कोर्ट को निर्देश: मामले को 3 महीने के भीतर निपटाने और बच्चे की भलाई को केंद्र में रखने को कहा गया।
कानूनी सिद्धांत: “बच्चे की भलाई” ही सबसे महत्वपूर्ण
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में निम्नलिखित प्रमुख कानूनी बिंदुओं को रेखांकित किया:
पैरेंस पैट्रिए अधिकार: कोर्ट ने खुद को बच्चे का कानूनी संरक्षक मानते हुए फैसला लिया।
निल रतन कुंडू vs अभिजीत कुंडू (2008): इस केस में कहा गया था कि कस्टडी मामलों में कानूनी प्रावधानों से ज्यादा बच्चे की भलाई महत्वपूर्ण है।
यशिता साहू vs राजस्थान सरकार (2020): कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बच्चे को माता-पिता दोनों का प्यार और सुरक्षा मिलनी चाहिए।
प्रतिक्रियाएँ: क्या कहते हैं विशेषज्ञ?
वकील राजेश मेहता: “यह फैसला उन पिताओं के लिए राहत भरा है, जो तलाक के बाद बच्चों से जुड़ाव बनाए रखना चाहते हैं।”
चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट डॉ. प्रिया शर्मा: “बच्चे की मानसिक स्थिति को प्राथमिकता देना जरूरी है। कोर्ट ने संतुलित फैसला लिया है।”
माता-पिता के अधिकार संगठन: इस फैसले को “समान पैरेंटिंग अधिकारों की दिशा में एक कदम” बताया।
आगे की राह: अब क्या होगा?
फैमिली कोर्ट को 3 महीने के भीतर मामले का निपटारा करना होगा।
बच्चे की इच्छा और मनोवैज्ञानिक रिपोर्ट्स को फैसले में शामिल किया जाएगा।
यदि मां कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करती है, तो पिता सीधे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं।
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