TADA मामले में CBI की अपील खारिज, स्वीकारोक्ति बयान अवैध घोषित
सुप्रीम कोर्ट ने TADA मामले में CBI की अपील खारिज करते हुए स्वीकारोक्ति बयानों को अवैध ठहराया। जानें, कैसे प्रक्रियात्मक खामियों और फॉरेंसिक सबूतों के अभाव में बरी हुए आरोपी।
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20 मार्च 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने 1990 के एक आतंकवादी मामले में CBI की अपील खारिज कर दी। यह फैसला TADA अधिनियम के तहत दर्ज स्वीकारोक्ति बयानों की वैधता पर सीधे सवाल उठाता है। कोर्ट ने कहा कि CBI ने बयान दर्ज करते समय करतार सिंह गाइडलाइन्स का पालन नहीं किया, जिससे आरोपियों को बरी करना पड़ा।
मामला क्या था? 1990 की हत्या और अपहरण की घटना
घटना: 6 अप्रैल 1990 को कश्मीर विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. मुशीर-उल-हक और उनके सचिव अब्दुल गनी जरगर का आतंकवादियों द्वारा अपहरण और हत्या।
आरोप: जम्मू-कश्मीर स्टूडेंट्स लिबरेशन फ्रंट (JKSLF) के सदस्यों पर TADA अधिनियम और RPC की धाराएँ 302 (हत्या), 364 (अपहरण) लगाई गईं।
CBI की जाँच: आरोपियों के स्वीकारोक्ति बयान मुख्य सबूत थे, जिन्हें SP रैंक के अधिकारी ने दर्ज किया था।
सुप्रीम कोर्ट ने क्यों खारिज की CBI की अपील?
1. स्वीकारोक्ति बयानों में गंभीर खामियाँ
दबावपूर्ण माहौल: बयान BSF कैंप और जॉइंट इंटरोगेशन सेंटर (JIC) में दर्ज किए गए, जहाँ आरोपियों को रिफ्लेक्शन पीरियड नहीं दिया गया।
तारीख-समय की विसंगतियाँ: एक बयान 6 अगस्त को दर्ज किया गया, लेकिन सर्टिफिकेट 16 सितंबर का था।
इश्यू एस्टॉपेल: पहले एक अन्य केस में इन्हीं बयानों को अविश्वसनीय ठहराया जा चुका था।
2. फॉरेंसिक सबूतों का अभाव
हथियार नहीं मिला: हत्या में इस्तेमाल AK-47 राइफल कभी बरामद नहीं हुई।
गवाहों ने पहचान नहीं की: चश्मदीद गवाहों ने कोर्ट में आरोपियों को पहचानने से इनकार कर दिया।
3. TADA अधिनियम के नियमों का उल्लंघन
करतार सिंह गाइडलाइन्स अनदेखी:
बयान दर्ज करने वाले अधिकारी ने स्वैच्छिकता सुनिश्चित नहीं की।
मेमोरेंडम अपेंड नहीं किया गया, जो TADA नियम 15 का हिस्सा है।
फैसले के मुख्य निहितार्थ
आतंकवाद विरोधी कानूनों की सीमाएँ
TADA जैसे कठोर कानून भी प्रक्रियात्मक पालन के बिना अमान्य: सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ड्रैकोनियन प्रावधान भी संवैधानिक मानकों से ऊपर नहीं।
CBI की जाँच पर सवाल
जाँच में लापरवाही: हथियार न बरामद करना और गवाहों की कमजोर पहचान केस को धराशायी कर दिया।
स्वीकारोक्ति बयानों पर अत्यधिक निर्भरता: कोर्ट ने कहा, “कन्फेशन अकेले सजा का आधार नहीं।”
न्यायिक प्रक्रिया की अहमियत
34 साल की देरी: मामले का निपटारा होने तक कई आरोपी बुजुर्ग हो चुके थे।
पुराने मामलों को प्राथमिकता: कोर्ट ने व्यवस्थागत सुधार की जरूरत पर जोर दिया।
यह फैसला आम जनता के लिए क्यों मायने रखता है?
कानून का शासन:
यह फैसला दिखाता है कि आतंकवाद के मामलों में भी न्यायिक प्रक्रिया अनिवार्य है।
पारदर्शिता का संदेश:
एजेंसियों को सबूत जुटाने और बयान दर्ज करने में अधिक सतर्क रहना होगा।
मानवाधिकारों की सुरक्षा:
दबाव में लिए गए बयान न्यायिक प्रक्रिया को कमजोर करते हैं, यह फैसला इससे बचाता है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल 1990 के इस केस में न्याय सुनिश्चित करता है, बल्कि भविष्य में आतंकवाद विरोधी मामलों की जाँच के लिए एक मिसाल भी बन गया है। यह साबित करता है कि कानूनी प्रक्रिया और नैतिक मानक किसी भी केस में अनदेखे नहीं किए जा सकते। CBI और अन्य एजेंसियों को यह सीख लेनी चाहिए कि स्वीकारोक्ति बयानों पर निर्भरता के बजाय ठोस सबूतों पर केस खड़ा करना जरूरी है।
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SHRUTI MISHRA
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