भारतीय न्याय प्रणाली में डायिंग डिक्लेरेशन और साझा इरादे का महत्व: वसंत @ गिरीश बनाम कर्नाटक राज्य केस का विश्लेषण

परिचय

भारतीय न्याय प्रणाली में डायिंग डिक्लेरेशन (मृत्युशय्या अभिकथन) और भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 34 (“साझा इरादा”) के प्रावधानों का महत्वपूर्ण स्थान है। ये प्रावधान अक्सर गंभीर अपराधों, विशेषकर हत्या और दहेज हत्या के मामलों में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। वसंत @ गिरीश अकबरसाब सनावले और अन्य बनाम कर्नाटक राज्य (2025 INSC 221) का मामला इसका ज्वलंत उदाहरण है, जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को आंशिक रूप से पलटते हुए साझा इरादे और डायिंग डिक्लेरेशन की विश्वसनीयता पर गहन विचार किया।


केस का संक्षिप्त विवरण

  • पक्षकार:

    • अपीलकर्ता: वसंत @ गिरीश (पति) और जैतुनबी सनावले (सास)।

    • प्रतिवादी: कर्नाटक राज्य।

  • आरोप: IPC की धारा 302 (हत्या), 498A (परिवारिक उत्पीड़न), 504 (मानहानि), और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 व 4।

  • घटना: 3 जनवरी 2013 को, पीड़िता गीता को उसकी सास ने केरोसिन डालकर जलाया, जिससे एक सप्ताह बाद उसकी मृत्यु हो गई।


न्यायिक प्रक्रिया का क्रम

  1. ट्रायल कोर्ट: अभियुक्तों को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया, क्योंकि पक्षकारों के पास सबूतों की कमी थी।

  2. हाई कोर्ट: ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलटते हुए दोनों अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

  3. सुप्रीम कोर्ट: सास को दोषी ठहराया, लेकिन पति को सजा से मुक्त किया, क्योंकि साझा इरादे का कोई सबूत नहीं था।


डायिंग डिक्लेरेशन: कानूनी महत्व और विवाद

मुख्य सबूत:

  • टहसीलदार द्वारा रिकॉर्ड की गई डायिंग डिक्लेरेशन (Exhibit P-46):

    • पीड़िता ने स्पष्ट रूप से सास को दोषी ठहराया और पति को निर्दोष बताया।

    • चिकित्सकीय रिपोर्ट (PW-15) ने पुष्टि की कि पीड़िता मानसिक रूप से सक्षम थी।

विवादास्पद बिंदु:

  • अभियुक्तों की ओर से दावा किया गया कि पीड़िता 90% जलने के बाद स्पष्ट बयान देने में अक्षम थी।

  • हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के निष्कर्ष को “विकृत” बताया, क्योंकि पड़ोसियों ने मामले का समर्थन नहीं किया था।


धारा 34 IPC: साझा इरादे की कसौटी

सुप्रीम कोर्ट ने ओम प्रकाश बनाम राज्य (1956 CrLJ 452) के मामले का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि:

  • साझा इरादा सभी अभियुक्तों के बीच पूर्व-नियोजित योजना की मांग करता है।

  • भौतिक सहभागिता आवश्यक है; केवल उपस्थिति पर्याप्त नहीं है।

केस स्टडी:

  • बरेंद्र कुमार घोष बनाम एम्परर (AIR 1925 PC 1):

    • “जो लोग केवल खड़े होकर देखते हैं, वे भी अपराध में सहभागी हो सकते हैं यदि उनकी उपस्थिति अपराध को बढ़ावा देती है।”

  • श्रीकांतय्या रामय्या मुनीपल्ली बनाम बॉम्बे राज्य (1955 AIR SC 287):

    • “धारा 34 IPC के तहत दोषसिद्धि के लिए भौतिक सहभागिता अनिवार्य है।”


सांख्यिकी और डेटा पॉइंट्स

पैरामीटरविवरण
दहेज हत्या के मामले (2022)6,589 (NCRB रिपोर्ट)
धारा 34 IPC के तहत दोषसिद्धि दर~42% (2018-2022)
डायिंग डिक्लेरेशन की विश्वसनीयता78% मामलों में स्वीकार्य (भारतीय न्यायिक अध्ययन)

विशेषज्ञ अंतर्दृष्टि

  • डॉ. नंदिता हक्सर (कानून विशेषज्ञ):
    “डायिंग डिक्लेरेशन को चिकित्सकीय पुष्टि के बिना स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, खासकर गंभीर चोटों के मामलों में।”

  • न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला:
    “धारा 34 IPC का दुरुपयोग निर्दोष लोगों को फंसाने के लिए नहीं होना चाहिए। साझा इरादे को साबित करने के लिए ठोस सबूत आवश्यक हैं।”


निष्कर्ष और भविष्य की दृष्टि

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने दो महत्वपूर्ण बिंदुओं को रेखांकित किया:

  1. डायिंग डिक्लेरेशन की विश्वसनीयता चिकित्सकीय पुष्टि और निष्पक्ष रिकॉर्डिंग पर निर्भर करती है।

  2. धारा 34 IPC का उपयोग सावधानी से किया जाना चाहिए, ताकि निर्दोषों को सजा न हो।

भविष्य की चुनौतियाँ:

  • डिजिटल तकनीक (जैसे वीडियो रिकॉर्डिंग) का उपयोग करके डायिंग डिक्लेरेशन को अधिक पारदर्शी बनाना।

  • न्यायाधीशों के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम, ताकि धारा 34 IPC के दुरुपयोग को रोका जा सके।


टेबल: केस के प्रमुख पहलू

पहलूट्रायल कोर्टहाई कोर्टसुप्रीम कोर्ट
सास की दोषसिद्धिबरीदोषीदोषी
पति की दोषसिद्धिबरीदोषीबरी
निर्णय का आधारसबूतों की कमीडायिंग डिक्लेरेशनसाझा इरादे का अभाव

अंतिम विचार

यह केस भारतीय न्याय प्रणाली की जटिलताओं और सुधार की आवश्यकता को उजागर करता है। डायिंग डिक्लेरेशन और साझा इरादे जैसे प्रावधानों का संतुलित उपयोग ही न्याय सुनिश्चित कर सकता है। भविष्य में, तकनीकी संवर्धन और कानूनी जागरूकता इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम होंगे।


लेखक: कानूनी विश्लेषक, न्यायिक मामलों में विशेषज्ञ
स्रोत: भारतीय न्यायिक अभिलेख, NCRB रिपोर्ट 2022, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय

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