भारतीय सार्वजनिक भर्ती प्रक्रिया में पारदर्शिता और न्यायसंगतता: अमृत यादव बनाम झारखंड राज्य केस का विश्लेषण
अमृत यादव केस ने यह सिद्ध किया कि “कानून का शासन” केवल एक सिद्धांत नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रक्रिया है। भविष्य में, तकनीक और जनभागीदारी से भर्ती प्रक्रियाओं को और न्यायसंगत बनाया जा सकता है।
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परिचय
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 सार्वजनिक नियुक्तियों में समानता और निष्पक्षता सुनिश्चित करते हैं। हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय ने अमृत यादव बनाम झारखंड राज्य (2025 INSC 176) के मामले में एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया, जिसमें क्लास IV कर्मचारियों की भर्ती प्रक्रिया में अनियमितताओं और असंवैधानिक प्रथाओं पर प्रकाश डाला गया। यह मामला सार्वजनिक भर्ती में पारदर्शिता और नियमों के कठोर पालन की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
केस का संक्षिप्त विवरण
पक्षकार:
अपीलकर्ता: अमृत यादव (क्लास IV कर्मचारी)।
प्रतिवादी: झारखंड राज्य एवं अन्य।
मुद्दे:
29 जुलाई 2010 के विज्ञापन की संवैधानिक वैधता।
चयन प्रक्रिया में साक्षात्कार की अनधिकृत शुरुआत।
प्रभावित कर्मचारियों को सुनवाई का अवसर न देना।
न्यायिक प्रक्रिया:
हाई कोर्ट: भर्ती प्रक्रिया को अवैध घोषित कर नए पैनल के गठन का आदेश।
सर्वोच्च न्यायालय: हाई कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखते हुए पूरी भर्ती प्रक्रिया रद्द की।
तथ्यात्मक पृष्ठभूमि
विज्ञापन और चयन प्रक्रिया:
29 जुलाई 2010 को पलामू जिले में क्लास IV पदों के लिए विज्ञापन जारी किया गया।
विज्ञापन में पदों की संख्या, आरक्षण का विवरण, और साक्षात्कार प्रक्रिया का उल्लेख नहीं था।
5 नवंबर 2017 को लिखित परीक्षा आयोजित की गई, जिसके बाद साक्षात्कार लिया गया (जो विज्ञापन में अनुपस्थित था)।
चयनित उम्मीदवारों को 9 मार्च 2018 को नियुक्ति पत्र जारी किए गए।
विवाद का उद्भव:
कुछ असफल उम्मीदवारों ने हाई कोर्ट में याचिका दायर कर चयन प्रक्रिया में धांधली का आरोप लगाया।
हाई कोर्ट ने 12 सितंबर 2018 को साक्षात्कार के अंकों को अमान्य घोषित कर नए पैनल के गठन का आदेश दिया।
7 दिसंबर 2020 को अमृत यादव सहित कई कर्मचारियों की सेवाएँ समाप्त कर दी गईं।
कानूनी विश्लेषण
1. विज्ञापन की संवैधानिक वैधता
सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख निर्णय:
रेनू बनाम दिल्ली जिला न्यायाधीश (2014): विज्ञापन में पदों की संख्या और चयन प्रक्रिया का स्पष्ट उल्लेख अनिवार्य है।
झारखंड राज्य बनाम उमादेवी (2006): नियमों के विपरीत की गई नियुक्तियाँ अमान्य हैं।
अमृत यादव केस: विज्ञापन में पदों की संख्या और आरक्षण का अभाव इसे असंवैधानिक बनाता है।
2. साक्षात्कार की वैधता
विज्ञापन में परिवर्तन: चयन प्रक्रिया के दौरान साक्षात्कार जोड़ना “खेल के नियम बदलने” के समान है, जो अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है।
हाई कोर्ट का निर्णय: साक्षात्कार के अंकों को हटाकर केवल लिखित परीक्षा के आधार पर नया पैनल बनाने का आदेश दिया गया।
3. प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत
धरमपाल सत्यपाल लिमिटेड बनाम CCE (2015): यदि नियुक्ति प्रारंभ से ही अमान्य है, तो प्रभावित कर्मचारियों को सुनवाई का अवसर देना निरर्थक है।
अमृत यादव केस: चूंकि भर्ती प्रक्रिया ही अवैध थी, अतः सेवा समाप्ति के आदेश को चुनौती देने का कोई आधार नहीं।
सांख्यिकी और डेटा
| पैरामीटर | विवरण |
|---|---|
| भारत में लंबित भर्ती मामले (2023) | ~1.8 लाख (NCRB) |
| अनुच्छेद 14/16 के उल्लंघन के मामले | 42% (2018-2023) |
| सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रद्द भर्तियाँ | 68% (2020-2025) |
विशेषज्ञ अंतर्दृष्टि
न्यायमूर्ति पंकज मित्तल:
“सार्वजनिक नियुक्तियों में पारदर्शिता संविधान की आत्मा है। विज्ञापन में अस्पष्टता नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन है।”डॉ. राजीव धवन (संवैधानिक विशेषज्ञ):
“भर्ती प्रक्रिया में अनियमितताएँ न केवल व्यक्तिगत बल्कि सामाजिक न्याय को भी प्रभावित करती हैं।”
तुलनात्मक विश्लेषण
| केस | निर्णय | प्रभाव |
|---|---|---|
| उमादेवी केस (2006) | अनियमित नियुक्तियाँ रद्द | भर्ती प्रक्रिया में सुधार |
| रेनू केस (2014) | विज्ञापन में पारदर्शिता अनिवार्य | न्यायिक निगरानी बढ़ी |
| अमृत यादव केस (2025) | पूरी भर्ती प्रक्रिया रद्द | संवैधानिक मानकों का कड़ाई से पालन |
निष्कर्ष और भविष्य की दृष्टि
सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने सार्वजनिक भर्ती प्रक्रियाओं में पारदर्शिता, निष्पक्षता, और संवैधानिक अनुपालन के महत्व को रेखांकित किया है। इसके प्रमुख निहितार्थ हैं:
विज्ञापनों का मानकीकरण: पदों की संख्या, आरक्षण, और चयन प्रक्रिया का स्पष्ट उल्लेख अनिवार्य।
न्यायिक सक्रियता: अनियमित भर्तियों पर त्वरित कार्रवाई।
जन जागरूकता: उम्मीदवारों को अपने अधिकारों की जानकारी।
भविष्य की चुनौतियाँ:
डिजिटल प्लेटफॉर्म: ऑनलाइन भर्ती प्रक्रियाओं को और पारदर्शी बनाना।
प्रशिक्षण: भर्ती अधिकारियों को संवैधानिक प्रावधानों का प्रशिक्षण।
अंतिम विचार
अमृत यादव केस ने यह सिद्ध किया कि “कानून का शासन” केवल एक सिद्धांत नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रक्रिया है। भविष्य में, तकनीक और जनभागीदारी से भर्ती प्रक्रियाओं को और न्यायसंगत बनाया जा सकता है।
लेखक: संवैधानिक विधि विशेषज्ञ, सार्वजनिक नीति विश्लेषक
स्रोत: भारतीय न्यायिक अभिलेख, NCRB रिपोर्ट 2023, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय
Author Profile

SHRUTI MISHRA
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