supreme court of india सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने मकान मालिक के पक्ष में फैसला सुनाते हुए किरायेदार को खाली करने का आदेश दिया

यह फैसला संपत्ति कानूनों की स्पष्ट व्याख्या करता है। विरोधी कब्जे के दावे बिना ठोस सबूत के नहीं चल सकते।सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट को याद दिलाया कि द्वितीय अपील तथ्यों का पुनर्मूल्यांकन नहीं है। यह केस भविष्य के लिए एक मिसाल है।

मामले की पृष्ठभूमि

1974: बेरहामपुर (ओडिशा) स्थित ‘मधु मंदिर’ बंगले के दुकान कक्षों को सुरेंद्र साहू (किरायेदार) ने मकान मालिका स्वर्गीय श्रीमती अशालता देवी से किराए पर लिया। मासिक किराया ₹1,000 तय हुआ।
2001: किरायेदार ने किराया देना बंद कर दिया।
2003: मकान मालिक रवींद्रनाथ पाणिग्रही (अशालता देवी के दत्तक पुत्र) ने किरायेदार को कानूनी नोटिस भेजकर खाली करने को कहा।
2003: किरायेदार ने दावा किया कि उसे संपत्ति पर विरोधी कब्जा (Adverse Possession) का अधिकार है और अशालता देवी ने मौखिक उपहार (Oral Gift) दिया था।
2007: ट्रायल कोर्ट ने मकान मालिक के पक्ष में फैसला सुनाया, किरायेदार को खाली करने का आदेश दिया।
2011: प्रथम अपीलीय अदालत ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा।
2022: ओडिशा हाई कोर्ट ने द्वितीय अपील में किरायेदार के पक्ष में फैसला सुनाया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया।


मुख्य विवाद बिंदु

  1. मकान मालिक का दावा: रवींद्रनाथ पाणिग्रही अशालता देवी के दत्तक पुत्र हैं और उनकी मृत्यु के बाद संपत्ति के वैध उत्तराधिकारी हैं।

  2. किरायेदार का तर्क:

    • अशालता देवी ने 1974 में मौखिक उपहार देकर संपत्ति सौंपी।

    • 30+ वर्षों के विरोधी कब्जे से उसे स्वामित्व का अधिकार मिल गया।

  3. कानूनी प्रश्न:

    • क्या मौखिक उपहार से संपत्ति का हस्तांतरण वैध है?

    • क्या किरायेदार ने विरोधी कब्जे के लिए आवश्यक शर्तें पूरी कीं?


निचली अदालतों के निर्णय

ट्रायल कोर्ट (2007) और प्रथम अपीलीय अदालत (2011) के मुख्य निष्कर्ष:

  • दत्तक पुत्र का अधिकार: रवींद्रनाथ ने अशालता देवी का दत्तक पुत्र होने का सबूत दिया। संपत्ति पर उनका स्वामित्व वैध।

  • मौखिक उपहार अमान्य: संपत्ति हस्तांतरण के लिए पंजीकृत दस्तावेज अनिवार्य है (ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट, 1882)।

  • विरोधी कब्जा साबित नहीं: किरायेदार का कब्जा अनुमति से शुरू हुआ, इसलिए विरोधी नहीं माना जा सकता।

  • किरायेदारी संबंध: किरायेदार ने 1974 से किराया दिया, जो 2001 तक बंद हो गया।


हाई कोर्ट का विवादास्पद फैसला (2022)

ओडिशा हाई कोर्ट ने द्वितीय अपील में दो प्रमुख प्रश्न उठाए:

  1. क्या ट्रायल कोर्ट ने परिस्थितिजन्य सबूतों के आधार पर मकान मालिक-किरायेदार संबंध गलत तरीके से स्थापित किया?

  2. क्या प्रथम अपीलीय अदालत ने सभी मुद्दों पर विचार नहीं किया?

हाई कोर्ट का निर्णय:

  • मकान मालिक को खाली करने का आदेश रद्द किया।

  • कहा: “मकान मालिक को अलग से स्वामित्व का केस दायर करना चाहिए।”


सुप्रीम कोर्ट की ऐतिहासिक टिप्पणियाँ

  1. द्वितीय अपील की सीमाएँ:

    • सुप्रीम कोर्ट ने Hero Vinoth v. Seshammal (2006) और Nazir Mohamed v. J. Kamala (2020) का हवाला देते हुए कहा:

      • “द्वितीय अपील केवल विधिक प्रश्नों पर सुनवाई कर सकती है, तथ्यों पर नहीं।”

      • हाई कोर्ट ने तथ्यों की पुनः जाँच कर गलती की

  2. विरोधी कब्जे की शर्तें:

    • किरायेदार ने खुले, निरंतर और शत्रुतापूर्ण कब्जे का कोई सबूत नहीं दिया।

    • अनुमति से शुरू हुआ कब्जा कभी भी विरोधी नहीं बन सकता (एयर 1962 SC 1314)।

  3. मकान मालिक का स्वामित्व:

    • किरायेदार ने रवींद्रनाथ के दत्तक पुत्र होने को चुनौती नहीं दी, इसलिए यह दावा अंतिम माना गया।

  4. हाई कोर्ट की टिप्पणी पर आपत्ति:

    • “यदि किरायेदार ने विरोधी कब्जा साबित नहीं किया, तो मकान मालिक को खाली करने का अधिकार स्वतः मिलता है। अलग स्वामित्व का केस अनावश्यक है।”


सुप्रीम कोर्ट का अंतिम आदेश

  1. किरायेदार को 3 महीने के भीतर दुकान कक्ष खाली करने होंगे।

  2. सभी बकाया किराया, बिजली बिल आदि का भुगतान अनिवार्य।

  3. हाई कोर्ट का फैसला रद्द कर ट्रायल कोर्ट के आदेश को बहाल किया गया।


कानूनी विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया

  • वकील यशोबंत दास (मकान मालिक के वकील): “यह फैसला संपत्ति कानूनों की स्पष्ट व्याख्या करता है। विरोधी कब्जे के दावे बिना ठोस सबूत के नहीं चल सकते।”

  • न्यायिक विश्लेषक डॉ. प्रीति सिंह: “सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट को याद दिलाया कि द्वितीय अपील तथ्यों का पुनर्मूल्यांकन नहीं है। यह केस भविष्य के लिए एक मिसाल है।”

  • Click here to download judgement- मकान मालिक-किरायेदार विवाद

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