1989 के हत्या मामले में बुजुर्ग आरोपियों को राहत देते सुप्रीम कोर्ट हत्या केस फैसला का ऐतिहासिक
Home <h3><strong>परिचय</strong></h3><p>2025 में <strong>भारत के सुप्रीम कोर्ट</strong> ने मध्य प्रदेश सरकार की अपील खारिज करते हुए <strong>हत्या (आईपीसी धारा 302)</strong> के आरोप को <strong>इरादतन हत्या न होना (आईपीसी धारा 304)</strong> में बदलने का मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का फैसला बरकरार रखा। यह फैसला न्यायपालिका की <strong>लंबित मुकदमों</strong> और <strong>70-80 वर्षीय आरोपियों की उम्र</strong> को सजा में मिटिगेटिंग फैक्टर मानने की प्रवृत्ति को दर्शाता है।</p><hr /><h3><strong>मामले…
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परिचय
2025 में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश सरकार की अपील खारिज करते हुए हत्या (आईपीसी धारा 302) के आरोप को इरादतन हत्या न होना (आईपीसी धारा 304) में बदलने का मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का फैसला बरकरार रखा। यह फैसला न्यायपालिका की लंबित मुकदमों और 70-80 वर्षीय आरोपियों की उम्र को सजा में मिटिगेटिंग फैक्टर मानने की प्रवृत्ति को दर्शाता है।
मामले की पृष्ठभूमि: 1989 की घटना
तारीख: 1 नवंबर 1989।
आरोप: आरोपियों पर धारा 147 (दंगा), 452 (घर में घुसपैठ), 302 (हत्या), 325 (गंभीर चोट), और 323 (साधारण चोट) आईपीसी के साथ धारा 149 (अवैध समूह) लगाए गए।
आरोपपत्र का दावा: आरोपियों ने लक्ष्मण सहित छह लोगों पर हमला किया, जिसकी वजह एक भैंस की पूंछ काटने को लेकर विवाद बताई गई।
ट्रायल कोर्ट का फैसला (1994): धारा 302/149 के तहत आजीवन कारावास और अन्य आरोपों में साथ चलने वाली सजाएं।
हाई कोर्ट की राहत के मुख्य कारण
मेडिकल सबूत: मृतक को शुरुआत में साधारण चोटें आईं, लेकिन 15 दिन बाद उसकी मौत हो गई। पोस्टमार्टम में दम घुटने (Asphyxia) को कारण बताया गया, लेकिन आंतरिक चोट या जहर नहीं मिला।
आरोपियों की उम्र: चार आरोपी 70 वर्ष से अधिक, एक 80 वर्षीय।
मुकदमे में देरी: अपील का फैसला होने में 21 साल लगे।
सजा में कमी: हाई कोर्ट ने 1.6 लाख रुपये जुर्माना (पीड़ितों को मुआवजा) लगाया और सजा 76 दिन की पहले से हुई हिरासत तक सीमित की।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
मेडिकल सबूत और कारण-कार्य संबंध
डॉ. बाबूराम आर्य (PW-17) का बयान: मृतक की चोटें घातक नहीं थीं और मौत से सीधा संबंध साबित नहीं हो सका।
समय अंतराल: घटना के 15 दिन बाद मौत, जिससे कारण पर संदेह पैदा हुआ।
उद्धृत कानूनी मिसालें
अहमद हुसैन वली मोहम्मद सईद बनाम गुजरात राज्य (2009): सजा का निर्धारण समाज के हित में होना चाहिए, लेकिन बुजुर्ग आरोपियों के लिए अपवाद स्वीकार किए।
फत्ता एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1979): देरी वाले मामलों में मुआवजे को जेल से ज्यादा प्रभावी माना।
लंबित मुकदमों का प्रभाव
कोर्ट ने व्यवस्थागत देरी की आलोचना करते हुए कहा कि घटना को 36 साल हो चुके हैं।
बुजुर्ग आरोपियों या आजीवन कारावास वाले पुराने मामलों को प्राथमिकता देने पर जोर दिया।
भारतीय दंड विधि के लिए महत्वपूर्ण बिंदु
उम्र एक नरमी का कारक: बुजुर्ग आरोपियों को न्याय के साथ दया का संतुलन बनाना।
मेडिकल सबूत की भूमिका: हत्या का आरोप साबित करने के लिए चोट और मौत का सीधा संबंध जरूरी।
न्यायिक सुधार: बुजुर्ग आरोपियों या लंबित मामलों को जल्द सुनवाई देने की आवश्यकता।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न्यायिक लचीलेपन को दर्शाता है, जो समाजिक-कानूनी वास्तविकताओं जैसे बुजुर्ग आरोपी और व्यवस्थागत देरी को ध्यान में रखता है। हत्या के आरोपों में कमी का यह मामला दया और न्याय के संतुलन का एक मिसाल बन गया है। कानूनी पेशेवरों और नीति निर्माताओं को ऐसे मामलों में समयबद्ध न्याय सुनिश्चित करने के लिए सुधारों पर ध्यान देना चाहिए।
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SHRUTI MISHRA
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