सुप्रीम कोर्ट ने संपत्ति हस्तांतरण के मामले में अवमानना पर दिया ऐतिहासिक निर्णय
मामले का संक्षिप्त विवरण सुप्रीम कोर्ट ने सिविल अपील संख्या 13999/2024 में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए अवमानना के मामले में आरोपितों को दोषी ठहराया। यह मामला कर्नाटक हाई कोर्ट के उस निर्णय के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका (SLP) पर आधारित था, जिसमें अपीलकर्ताओं (मूल प्रतिवादी) को कोर्ट के आदेश की अवहेलना करने का दोषी…
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मामले का संक्षिप्त विवरण
सुप्रीम कोर्ट ने सिविल अपील संख्या 13999/2024 में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए अवमानना के मामले में आरोपितों को दोषी ठहराया। यह मामला कर्नाटक हाई कोर्ट के उस निर्णय के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका (SLP) पर आधारित था, जिसमें अपीलकर्ताओं (मूल प्रतिवादी) को कोर्ट के आदेश की अवहेलना करने का दोषी पाया गया था। मामले का केंद्र बिंदु “संयुक्त विकास समझौते (JDA)” के तहत एक संपत्ति के हस्तांतरण से जुड़ा था, जिसमें प्रतिवादियों ने कोर्ट को दिए गए वचन का उल्लंघन किया था।
मुख्य तथ्य
पृष्ठभूमि: 2004 में हुए JDA के तहत, प्रतिवादियों ने आवासीय अपार्टमेंट बनाने का वादा किया, लेकिन समय सीमा पूरी नहीं की।
कोर्ट में वचन: 2007 में प्रतिवादियों के वकील ने कोर्ट को वचन दिया कि वे संपत्ति को किसी तीसरे पक्ष को नहीं बेचेंगे।
उल्लंघन: 2007 से 2011 के बीच, प्रतिवादियों ने संपत्ति के कई हिस्से बेच दिए (Ex.P3 से P13 तक दस्तावेज़)।
हाई कोर्ट का निर्णय: 2021 में अवमानना की कार्यवाही में प्रतिवादियों को दोषी ठहराया गया और जुर्माना एवं कारावास की सजा सुनाई गई।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के प्रमुख बिंदु
वकील-ग्राहक संबंध:
कोर्ट ने Kokkanda B. Poondacha v. K.D. Ganapathi (2011) और Himalayan Coop. Group Housing Society v. Balwan Singh (2015) के हवाले से स्पष्ट किया कि वकील को ग्राहक की स्पष्ट अनुमति के बिना कोई वचन नहीं देना चाहिए।
हालाँकि, इस मामले में प्रतिवादियों ने 4.5 वर्षों तक वचन के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया, जिससे उनकी मौन स्वीकृति मानी गई।
अवमानना का सिद्धांत:
Samee Khan v. Bindu Khan (1998) और Kanwar Singh Saini v. High Court of Delhi (2012) के अनुसार, अदालती आदेश की अवहेलना भले ही बाद में रद्द हो जाए, लेकिन उल्लंघन का दोष बना रहता है।
कोर्ट ने जोर देकर कहा कि अदालत की गरिमा बनाए रखना समाज के हित में है (Supreme Court Bar Assn. v. Union of India, 1998)।
सजा में संशोधन:
63 वर्षीय अपीलकर्ता की उम्र और स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए, 3 माह के कारावास को हटाकर जुर्माना ₹10 लाख से बढ़ाकर ₹13 लाख कर दिया गया।
संपत्ति की जब्ती का आदेश बरकरार रखा गया।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अदालती आदेशों का पालन न करना न्याय प्रणाली के प्रति अवमानना है। इस फैसले से वकीलों और ग्राहकों के बीच जिम्मेदारी का स्पष्ट विभाजन भी हुआ है। यह निर्णय भविष्य में ऐसे मामलों में एक मिसाल के रूप में काम करेगा।
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SHRUTI MISHRA
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